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अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। सद्यो॒ ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥३३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अक्र॑न्दत्। अ॒ग्निः। स्त॒नय॑न्नि॒वेति॑ स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। क्षामा॑। रेरि॑हत्। वी॒रुधः॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स॒द्यः ज॒ज्ञा॒नः। वि। हि। ई॒म्। इ॒द्धः। अख्य॑त्। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। भा॒नुना॑। भा॒ति॒। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥३३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राज्य का प्रबन्ध कैसे करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजा के लोगो ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे (द्यौः) सूर्य प्रकाशकर्त्ता है, वैसे विद्या और न्याय का प्रकाश करने और (अग्निः) पावक के तुल्य शत्रुओं का नष्ट करनेहारा विद्वान् (स्तनयन्निव) बिजुली के समान (अक्रन्दत्) गर्जता और (वीरुधः) वन के वृक्षों की (समञ्जन्) अच्छे प्रकार रक्षा करता हुआ (क्षामा) पृथिवी पर (रेरिहत्) युद्ध करे (जज्ञानः) राजनीति से प्रसिद्ध हुआ, (इद्धः) शुभ लक्षणों से प्रकाशित (सद्यः) शीघ्र (व्यख्यत्) धर्मयुक्त उपदेश करे तथा (भानुना) पुरुषार्थ के प्रकाश से (हि) ही (रोदसी) अग्नि और भूमि को (अन्तः) राजधर्म में स्थिर करता हुआ (आभाति) अच्छे प्रकार प्रकाश करता है, वह पुरुष राजा होने के योग्य है, ऐसा निश्चित जानो ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वन के वृक्षों की रक्षा के विना बहुत वर्षा और रोगों की न्यूनता नहीं होती, और बिजुली के तुल्य दूर के समाचारों शत्रुओं को मारने और विद्या तथा न्याय के प्रकाश के विना अच्छा स्थिर राज्य ही नहीं हो सकता ॥३३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राज्यप्रबन्धः कथं कार्य्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अक्रन्दत्) विजानाति (अग्निः) शत्रुदाहको विद्वान् (स्तनयन्निव) विद्युद्वद् गर्जयन् (द्यौः) विद्यान्यायप्रकाशकः (क्षामा) भूमिम् (रेरिहत्) भृशं युध्यस्व (वीरुधः) वनस्थान् वृक्षान् (समञ्जन्) सम्यक् रक्षन् (सद्यः) तूर्णम् (जज्ञानः) राजनीत्या प्रादुर्भूतः (वि) (हि) खलु (ईम्) सर्वतः (इद्धः) शुभलक्षणैः प्रकाशितः (अख्यत्) धर्म्यानुपदेशान् प्रकथयेः (आ) (रोदसी) अग्निभूमी (भानुना) पुरुषार्थप्रकाशेन (भाति) (अन्तः) राजधर्म्ममध्ये स्थितः। [अयं मन्त्रः शत०६.८.१.११ व्याख्यातः] ॥३३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजाजनाः ! युष्माभिर्यथा द्यौरग्निः स्तनयन्निवाक्रन्दद्, वीरुधः समञ्जन् क्षामा रेरिहत् जज्ञान इद्धः सद्यो व्यख्यत् भानुना हि रोदसी अन्तराभाति, तथा स राजा भवितुं योग्योऽस्तीति वेद्यम् ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नहि वनवृक्षरक्षणेन वृष्टिबाहुल्यमारोग्यं तडिद्व्यवहारवद् दूरसमाचारग्रहणेन शत्रुविनाशनेन राज्ये विद्यान्यायप्रकाशेन च विना सुराज्यं च जायते ॥३३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. वनराजींचे रक्षण केल्याशिवाय रोग कमी होऊ शकत नाहीत व अधिक पाऊस पडू शकत नाही, तसेच शत्रूंना मारण्यासाठी, दूरचे वर्तमान कळण्यासाठी विद्युतप्रमाणे जलद कार्य केल्याशिवाय आणि विद्या व न्याय याखेरीज चांगले स्थिर राज्यही होऊ शकत नाही.